रूस्‍तम-ए-हिंद दारा सिंह चिर निद्रा में लीन हुए


दारा सिंह हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन उनका नाम पहलवानी को उसकी पहचान दिलाने वाले दिग्गजों में शुमार किया जाएगा। दारा कुश्ती के बादशाह तब बने थे, जब हम वर्ल्ड रेसलिंग फेडरेशन जैसे किसी शो के बारे में जानते भी नहीं थे। कई अण्डरटेकर आए और चले गए, पर दारा सबके चहेते बने रहे। दारा सिंह पहले ऐसे पहलवान-अभिनेता थे जिन्‍होंने स्‍थानीय लोकल फाईट्स के प्रशंसकों का परिचय कुश्ती से करवाया। दुनिया भर में पसंद की जाने वाली रेसलिंग का देसी-रूप कुश्ती भारत में पहले ही मशहूर हो चुका था।

 आम लोगों के चैंपियन दारा जब अलग-अलग नामों से रिंग में उतरते थे, तो अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते थे। दारा सिंह ने जोरबा-दी ग्रीक, क्वासीमोडो-दी हन्चबैक, जेब्रा किड, दी आइरन शेख, मंगोल वारलॉर्ड,  किलर कोबरा, सारजेन्ट स्लॉटर, जायन्ट हेस्टैक, दी बोस्टन बुचर जैसे रंग-बिरंगे नामों से मशहूर पहलवानों को धूल-चटाई। एक बार तो उन्‍होंने बम्बई (मुम्बई) के वल्लभभाई स्टेडियम में किंग कांग को भी पटखनी दी थी। हैलोजन लाईट की रोशनी में लड़ते हुए वे दर्शकों का वैसा ही फुल पैसा-वसूल एन्टरटेनमेंट करते थे, जैसा आजकल जॉन सीना, एलबर्टो डेल रियो, सी. एम. पंक और रे मिस्टीरियो करते हैं।

हालांकि, इन लड़ाइयों में जीत-हार पहले से ही तय रहती थी, पर उनके फैन्स को यही पसंद था। वे ज्यादातर पंजाब के ट्रक और टैक्सी ड्राइवर्स हुआ करते थे, जो बम्बई अपनी किस्मत आजमाने आते थे। इन साधारण और भगवान से डरने वाले प्रशंसकों ने उन्हें 'रुस्तम-ए-जमान' यानी 'चैंपियन ऑफ दी वर्ल्‍ड' मान लिया था। 1950 के दशक में इन्होंने फ्री-स्टाइल रेसलिंग में सिंगापुर, मसेशिया, कनाडा और न्यूजीलैण्ड के पहलवानों को चित कर भारत की शान बढाई। 1960 में तो इन्होंने यूरोप, अफ्रीका, पाकिस्तान, जापान और आखिर में अमरीका के लू थेज को पटखनी देकर देश का नाम ऊंचा किया।

लोग उनकी पूजा करते थे। हर शनिवार की शाम बम्बई में जैसे तमाशा लगता था। पर एक दिन अचानक उन्होंने कुश्ती को अलविदा कह दिया। 1980 के दशक में लोगों ने आखिरी बार उनकी रेसलिंग का मजा लिया। अब बम्बई के वर्ली और मरीन ड्राइव की सड़कों पर उनकी कुश्तियों का कोई आदम-कद पोस्टर नहीं लगता था। जो लगते थे उनमें भी दारा से हारे किसी प्रतिद्वन्द्वी की बदले की आग में उबलती तस्वीर नहीं होती थी।

 रेसलिंग से बॉलीवुड और फिर रेसलिंग का रुख करने वाले दारा अब टीवी की दुनिया में अपनी पारी खेलने के लिए तैयार थे। कई दिनों तक प्रसारित होने वाले मशहूर धारावाहिक ‘रामायण’ में दारा ने हनुमान का यादगार किरदार निभाया। इधर, दारा ने रेसलिंग को अलविदा कहा, और उधर वर्ल्ड रेसलिंग फेडरेशन भारत दौरे पर आई। उसने बम्बई के अन्धेरी स्पोर्ट्स कांप्लेक्स में सबसे बड़ी प्रदर्शनी लगाई। अब तक टीवी पर दिखने वाले दी अण्डरटेकर, योकोजूना, रैण्डी सैवेज, डीजल, दी रॉक, ब्रेट हार्ट और बिग शो लोगों को बिल्कुल करीब से एन्टरटेन करने वाले थे।
 अफसोस, तब कोई देसी खिलाड़ी मौजूद नहीं था। टाइगर जोगिन्दर सिंह को लोग पहले ही भूल चुके थे, दी ग्रेट खली को तब कोई जानता नहीं था, पर दारा तो थे, 60 की उम्र में भी पूरी तरह फिट। यकीनन, दारा एक आखिरी बार रिंग में उतर जरूर अपने अंदर के पहलवान से दोबारा मिलना चाह रहे होंगे। पर न तो वर्ल्ड रेसलिंग फेडरेशन और न ही इसके भारतीय आयोजकों ने उन्हें प्यार और इज्जत से बुलाना जरूरी समझा।

इस वाकये पर उनकी प्रतिक्रिया जानने मैं जुहू स्थित बंगले पर उनसे मिलने गया। जब वहां पहुंचा तो दारा ब्‍लैक शॉर्ट्स और पीले टी-शर्ट में थे। टी-शर्ट पर पंजाब के किसी रेसलिंग एसोसिएशन का नाम छपा था। वे सुबह की धूप में अपनी छत पर एक्‍सरसाइज कर रहे थे। कभी कभी बमुश्किल अपने घुटने मोड़ते तो कभी हांफते-हांफते सूर्य नमस्कार करते। दंड-बैठक और स्पॉट-जॉगिंग करते हुए बहुत उत्साह से उन्होंने मुझसे कहा, 'पहले आसानी से हो जाता था।' पसीने से भीगे अपने हाथों को पोंछते हुए उन्होंने ऐसा कहा तो मैंने सोचा कि आखिर उन्हें इतना अफसोस करने की क्या जरूरत? 68 की उम्र में कोई भी इतना फिट नहीं रह पाता।

छह फीट दो इंच लंबे दारा की छाती अब भी 48 इंच की थी। 17 इंच का गठीला बाजू और 28 इंच की मजबूत जांघें थीं। ऊपर से 115 किलो के दारा का खिलखिलाता तेजस्‍वी चेहरा और चौड़ी मुस्कान जैसे कोई जादू कर जाती थी। तब मुझे उनमें कोई 'पंजाब दा पुत्तर' नहीं, बल्कि सबके चहेते अंकल दिखाई दिए। दारा ने जोर देते हुए कहा, ''मैं फिट हूं, पर पहले से 50 पर्सेंट कम। मैं पहले जैसा मजबूत भी नहीं। दिन में तीन घंटे और हफ्ते में छह दिन एक्‍सरसाइज करता हूं, पर शरीर दिन पर दिन कठोर होता जा रहा है। अब मैं सिर्फ इन्‍हें लचीला बनाए रखने के लिए ऐसा करता हूं। खैर, वैसे भी अब मैं कोई रेसलिए तो कर नहीं रहा, तो मुझे ताकत और स्टेमिना की खास जरूरत नहीं।''

फिर हमने डब्ल्यू. डब्ल्यू. एफ पर बातें कीं। उनमें नफरत का कोई भी भाव नहीं था। अगर था भी तो उन्होंने ऐसा जाहिर नहीं किया। 'भारत में रेस्लिंग का मतलब केवल दारा सिंह नहीं होता' उन्होंने एक बड़ी-सी स्माइल देकर कहा। 'अच्छा है कि अब हमारे बच्चे डब्ल्यू. डब्ल्यू. एफ की कमान संभाल रहे हैं। और यह भी सही है कि यह खेल भारत में आ भी नहीं रहा। कम से कम टी.वी. पर इसे देखने से बच्चों की इसमें दिलचस्पी बढ़ेगी जो खेल के भविष्य के लिए अच्छा है। कोई शक नहीं कि रेस्लर्स काफी अच्छे हैं, वे सुपर-एथलीट हैं, बॉडी-बिल्डर और कद-काठी में बड़े, पर स्टन्टबाजी बहुत होती है। वे आपस में विचार कर के लड़ते हैं और बारी-बारी खिताब जीतते हैं। फिर हार-जीत का तो सवाल ही नहीं उठता'। ऐसा सुन यकीन हो गया कि उनका दिल भी कितना बड़ा है।  

तब तक वे खुद भी रेस्लिंग की दुनिया से आगे निकल चुके थे। अब वे अपनी कुश्ती नहीं, बल्कि बॉलीवुड और पंजाब की फिल्मों के कारण जाने जाते थे। टी.वी. ने तो उन्हें एक बार फिर घर-घर चर्चित कर लोगों के मन में उनके लिए आदर का भाव जगा दिया था। और फिर फिल्मों में काम करना कुश्ती लड़ने से तो काफी आसान था। यहां उन्हें कोई कमर-तोड़ शारीरिक मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। हीरो तो वे पहले से ही थे, बॉलीवुड में आ कर उन्होंने एक्टिंग भी सीख ली। वे बहुत अच्छी तरह जानते थे कि फिल्में केवल उनके नाम से जुड़े सम्मान के भाव से चल जाया करती थीं। '
बड़ी बजट की फिल्में सोशल ड्रामा हुआ करती थीं और उस वक्त के बड़े सितारे जैसे देव आनन्द, दिलीप कुमार और राज कपूर खुद फाइट-सीन नहीं किया करते थे। उनके लिए फाइट मास्टर और स्टन्ट मेन हुआ करते थे। मैं खुशकिस्मत था कि मेरे ऐक्शन की समझ ने मुझे बॉलीवुड में टिकने में मदद की।'उन्होंने आगे कहा, 'मेरी फिल्में हमेशा ही एवरेज होती थीं। हिंदी की फिल्में तो कभी खास हिट नहीं हुईं, पर पंजाब की सारी बहुत सफल हुईं।'

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