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बलात्कार: 2013 के अपराध कानून संशोधन अधिनियम के साथ ही बदल गया.

करीब डेढ़ सौ बरस से भारतीय कानून किसी महिला की सहमति के बिना या उसकी इच्छा के विरुद्ध योनि में किसी पुरुष के जननांग प्रवेश को बलात्कार मानता रहा है. यौन उत्पीडऩ के तमाम दूसरे रूपों मसलन शरीर के किसी और हिस्से में पुरुष जननांग के प्रवेश को बलात्कार नहीं माना जाता रहा है.

बलात्कार के कानून का फोकस स्त्री की यौनिकता को नियंत्रित करना रहा है, न कि उसकी शारीरिक स्वायत्तता और गरिमा की रक्षा. इस तरह वह कानून बलात्कार को बर्दाश्त करने की जमीन तैयार करता था. लेकिन यह नजरिया 2013 के अपराध कानून संशोधन अधिनियम के साथ ही बदल गया.

नया कानून अब किसी महिला की सहमति या इच्छा के विरुद्ध उसके शरीर के किसी हिस्से (योनि, गुदाद्वार या कोई अन्य) में पुरुष जननांग, उंगली या किसी अन्य वस्तु को किसी भी तरह से घुसाने को बलात्कार मानता है.

यही नहीं, पीड़िता अगर आरोपी की हिरासत या प्रभाव में हो या उस पर भरोसा करती हो तो अपराध और संगीन हो जाता है. इसलिए यह कानून नई परिभाषा गढ़ता है और यौन हिंसा के बारे में सामान्य नजरिए को चुनौती देता है.

तरुण तेजपाल की वकील गीता लूथरा ने दलील रखी कि ‘‘आवेदक को जिस कानून के तहत गिरफ्तार किया जाना है, वह बेहद सख्त है.’’ जवाब में न्यायाधीश प्रभुदेसाई ने टिप्पणी की, ‘‘अपराध की प्रकृति....जेंडर से संबंधित है’’ और ‘‘उसका पीड़ित के जाति, धर्म, नस्ल या उसकी सामाजिक-राजनैतिक-वित्तीय हैसियत से कोई लेना-देना नहीं है.’’

दूसरे शब्दों में, बलात्कार पुरुष का अपनी प्रधानता साबित करने का पसंदीदा तरीका है. पुरुष सेक्स की कुंठा के कारण नहीं बल्कि अपनी वासना की तृप्ति के लिए बलात्कार करते हैं.

न्यायाधीश प्रभुदेसाई ने माना कि सामाजिक मान्यताएं रूढिग़्रस्त हैं और बलात्कार की शिकायतें छुपाने को बाध्य करती हैं. इस मायने में नया कानून बेरहम होने की बजाए उन मान्यताओं और यौन हिंसा को बर्दाश्त करने के नजरिए को चुनौती देता है. न्यायाधीश ने कहा भी, ‘‘जिस कानून को बेरहम बताया जा रहा है, वह दरअसल ऐसे अपराधों में बेहिसाब बढ़ोतरी पर अंकुश लगाने के मकसद से बनाया गया है.’’

इस तरह से पुरुष जननांग के बलात प्रवेश से संबंधित हर प्रकार की सेक्स हिंसा को समाज के खिलाफ अपराध (बल्कि संज्ञेय अपराध) मानकर पुरुष प्रधान समाज के अर्थ बदल दिए गए हैं. यह भी कि समाज कितना बर्दाश्त करेगा.

अदालत ने यह भी माना कि सामाजिक कलंक की धारणा की वजह से पीड़िताएं बलात्कार जैसे शब्द जबान पर लाने से बचती हैं. बलात्कार में पीड़िता का कोई दोष नहीं होता फिर भी उसे ही बलात्कार के लिए प्रोत्साहित करने का दोषी ठहराया जाता है. दूसरे शब्दों में कहें तो बलात्कार को लेकर समाज में प्रचलित धारणाओं के चलते कई पीड़िताएं शिकायत करने से हिचकती हैं या उनके साथ जो हुआ, उसे बलात्कार कहने से बचती हैं.

बलात्कार पीड़िताएं अकसर खुद को स्थायी शिकार कहलाने या बलात्कार को जीते जी मृत्यु की तरह देखने से बचती हैं. लोग भी बलात्कार पीड़िताओं को एक अलग ग्रह के प्राणी की तरह देखने लगते हैं. पीड़िता को अक्सर दया भाव से देखा जाता है या चरित्रहीन मान लिया जाता है. बलात्कार के खिलाफ  आवाज उठाने वाली पीड़िता को और भी सेक्स हिंसा के योग्य मान लिया जाता है.

महिला पत्रकार जब अपने काम के सिलसिले में बलात्कार पर शोध करती हैं, उस पर रिपोर्ट लिखती हैं और अपने संपादकों को उसे सुनाती हैं तो उस व्यक्ति में सेक्स संबंधी भावनाएं जगाने का खतरा उठा रही होती हैं. बलात्कार के खिलाफ आवाज उठाने वाली या शोध करने वाली महिलाओं के खुद सेक्स संबंधी उत्पीडऩ या बलात्कार तक का शिकार हो जाने की कहानियां अनजानी नहीं हैं.

ऐसी महिलाओं के खिलाफ अभद्रतापूर्ण तरीके से काम करने के आरोप उछलते हैं, उन्हें चरित्रहीन या उनके काम को भड़काऊ मान लिया जाता है. इसलिए न्यायाधीश प्रभुदेसाई ने फैसला सुनाया, ‘‘उपलब्ध सामग्री से पहली नजर में यह पता चलता है कि आवेद
क ने अपने क्रियाकलाप से, जिसे वह हल्के-फुल्के मूड में हुआ बताता है, पीड़िता को अपमानित, कलंकित किया.’’

अदालत ने अग्रिम जमानत से इनकार करते हुए तर्क दिया, ‘‘महिलाओं के प्रति संवेदनशील कानूनों का मकसद कानून पर सही अमल और ऐसे अपराधों की विस्तार से जांच-पड़ताल से ही हासिल हो सकता है...और इसमें हिरासत में पूछताछ भी जरूरी है.’’ अदालत को यह भी देखना है कि क्या आरोपी पुलिस पूछताछ में मदद करता है, और क्या हिरासत अवधि पूछताछ के लिए पर्याप्त है?

अदालत हिरासत में पूछताछ के दौरान पुलिस की ओर से मानसिक या शारीरिक उत्पीडऩ की संभावनाओं के बारे में भी संवेदनशील है, इसीलिए तेजपाल के वकीलों को उनसे मिलने की इजाजत दी गई है. इससे हमें यह याद दिलाया गया कि आरोपी के अधिकार भी अहम हैं, खासकर जब मामले के राजनीतिकरण या सनसनीखेज बनाने के सबूत मिल चुके हों.

आरोपी पर काला कपड़ा फेंकने या उसके सहयोगी के घर नेमप्लेट पर कालिख पोतने जैसी हरकतें देखी ही गई हैं, जो भीड़तंत्र की नुमाइश है. यह भीड़तंत्र हम दिल्ली के चर्चित गैंगरेप मामले में भी देख चुके हैं. लोगों को उसके एक अभियुक्त की हिरासत में मौत से कतई हैरानी नहीं हुई थी. ऐतिहासिक रूप से यही भीड़तंत्र महिलाओं के अधिकारों का भी विरोधी रहा है. इसलिए ऐसे कारनामे न्याय के लिए पीड़िता के संघर्ष का प्रतिनिधित्व निश्चित रूप से नहीं करते, न उसका समर्थन करते हैं.

स्त्री को न्याय के नाम पर निष्पक्ष सुनवाई के आदर्श को छोड़ देने की इजाजत नहीं दी जा सकती. हम दुनिया को बदलना चाहते हैं तो सेक्स हिंसा को राजनीति का अखाड़ा नहीं बनने दे सकते, बस उसके न्याय की बात होनी चाहिए.

प्रतीक्षा बक्शी जेएनयू में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ लॉ ऐंड गवर्नेंस विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.


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