लॉकडाऊन में पिस रहा मिडल क्लास ,बीमारी के साथ-साथ आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे मध्यम वर्गीय लोग
Dabwalinews.com
प्राइवेट जॉब वाले हताश
लॉकडाऊन की वजह से प्राइवेट जॉब वालों पर अधिक चोट पहुंची है। लॉकडाऊन के कारण उनका कामधंधा ठप होकर रह गया है। घर की जरूरतों को पूरा करने के लिए आय का कोई स्त्रोत नहीं है। इतनी सेविंग भी नहीं की 10-20 दिन घर बैठकर खा सकें। पिछले वर्ष की चोट से प्राइवेट जॉब वाले अभी उबरे भी नहीं थे कि इस बार फिर से जख्म हरे हो गए है। उन्हें भविष्य भी अंधकारमय दिखाई देने लगा है।
दुकानदारों पर दोहरी चोट
दुकानदार चाहें छोटा हो या बड़ा, हरेक पर लॉकडाऊन की चोट लग रही है। छोटे दुकानदारों को बंद दुकानों का भी किराया अदा करना पड़ रहा है। जब घर खर्च के लिए आय का कोई स्त्रोत नहीं है, वहीं उसे दुकान का किराया चुकाना होगा। जबकि बड़े दुकानदार अथवा शोरूम संचालकों पर भी उतना ही अधिक बोझ है। उन्हें अपने कर्मचारियों को वेतन की अदायगी करनी होगी। दुकानों के बिल, किराया, बैंक लोन का ब्याज सहित अन्य देनदारी चुकाने के लिए कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। अनेक ऐसे कारोबार है, जोकि सीजनल होते है। यानि सीजन के एक-दो माह ही काम होता है और सालभर का खर्च निकलता है। ऐसे में सीजन लॉकडाऊन में ही बीत जाने से उन्हें अपने परिवार के पालन पोषण की चिंता सताने लगी है।
नीति का हों निर्धारण
कोरोना पर रोकथाम के लिए लॉकडाऊन विवशता में लगाया गया है, लेकिन पिछले दो सप्ताह से लॉकडाऊन के बाद भी संक्रमण के मामलों में अधिक गिरावट नहीं आई है। संभवत: लॉकडाऊन को आगे भी बढ़ाया जाए। जनसुरक्षा के लिए यह कदम उठाया जाना अनुचित भी नहीं है। लेकिन इसके लिए नीति बनाई जा सकती है। कोरोना के साथ-साथ जीवन भी चलना है। इसलिए रोटेशन में दुकानों को खोलने की नीति अपनानी होगी। इसके लिए काम के कुछ घंटे निर्धारित किए जा सकते है। ताकि हर वर्ग का कामधंधा चलें और वे अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लायक अर्जित कर सकें। कम से कम किराया तो निकाल सकें। प्राइवेट जॉब वालों के सिर पर लटक रही अनिश्चितता की तलवार भी हट सकें।
'मेडिसिन बैंक' की हों स्थापना
पिछले वर्ष कोरोनाकाल में एकाध नहीं बल्कि सैंकड़ों संस्थाएं मदद के लिए सामने आई थी। अधिकांश ने तैयार भोजन तो अनेक ने सूखा राशन पहुंचाने का बीड़ा उठाया। इस वर्ष कोरोना की मार अधिक है, लेकिन संस्थाएं और दानी सज्जन सामने नहीं आ पाए है। वर्तमान में भले ही लंगर की आवश्यकता न हों, मगर दवा बैंक की नितांत आवश्यकता है। गरीब व मध्यम वर्ग के लिए दवा खरीद पाना बेहद मुश्किल हो गया है। दवा की खरीद के लिए उसे कर्ज लेना पड़ रहा है। ऐसे में समाजसेवी संस्थाएं और दानी सज्जनों की ओर से मेडिसिन बैंक स्थापित करके जरूरतमंदों को दवा मुहैया करवाई जाए तो यह सच्ची सेवा होगी। यदि फ्री दवा दिलवाया जाना कठिन हो तो रियायती दरों पर दवाओं की आपूर्ति का बीड़ा तो उठाया ही जा सकता है।
सरकार कब करेगी मदद?
लोकतांत्रिक प्रणाली में हर नागरिक के स्वास्थ्य की जिम्मेवारी सरकार की होती है। ऐसे में हरेक मरीज का उपचार करवाना सरकार की जिम्मेवारी है। चूंकि कोरोना महामारी बनकर सामने आया है और सरकार के संसाधन इतने नहीं है। ऐेसे में सरकार कोरोना के ईलाज का खर्च वहन करें। यदि सरकार ऐसा भी न कर सकें तो कम से कम लॉकडाऊन अवधि का बिजली व पानी के बिल माफ करें। हाऊस टैक्स में रियायत दें। जो दुकानें सरकारी विभागों ने किराए पर दी हुई है, उनका ही किराया माफ करें। सरकार की ओर से कोरोना से बचाव के लिए घर-घर किट वितरित की जाए, बीमार होने का इंतजार ही क्यों किया जाए? आखिर सरकार मध्यम वर्ग के लिए कब सोचेगी? कब तक गरीब-अमीर का फर्क करेगी? आखिर कब तक मिडल क्लास सुविधाओं से वंचित रहेगा?
कौन सुनेगा, किसको सुनाए....?
'कौन सुनेगा। किसको सुनाए। इसलिए चुप रहते हैÓ, गीत के बोल मध्यम वर्ग पर सटीक बैठते है। सरकार व संस्थाओं का फोकस गरीबों पर रहता है। अमीरों की तिजोरी भरी हुई है। ऐसे में मध्यम वर्ग को ही सर्वाधिक दर्द झेलना पड़ता है। मजबूर होने पर भी आत्मसम्मान के लिए वे किसी से मदद भी नहीं मांगते। भूखा होने पर भी लंगर की लाइन में खड़े नहीं होते। मगर, इस वर्ग के दर्द को न सरकार सुनती है और न ही संस्थाएं ही समझ पाती है। मध्यम वर्ग के लोग किसी के आगे बयां भी नहीं कर सकते। आखिर उनकी व्यथा कौन और कब सुनेगा?
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