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जिन्दगी को पूरी तरह से जीने की कला भला किसे आती है? : आचार्य रमेश सचदेवा

जिन्दगी को पूरी तरह से जीने की कला भला किसे आती है? कहीं ना कहीं जिन्दगी में हर किसी के कोई ना कोई कमी तो रह जाती है? प्यार का गीत गुनगुनाता है हर कोई और दिल की आवाज़ों का तराना सुनता है हर कोई, आसमान पर बने इन रिश्तो को निभाता है हर कोई, फिर भी हर चेहरे पर वो ख़ुशी क्यूँ नहीं नजर आती है!

क्योंकि जनाब जीवन मात्र एक नजरिए का खेल है। जीवन और कुछ नहीं आधा गिलास पानी से भरा है। जी हाँ, सुख-दु:ख से भरा यह जीवन हमारे नजरिए पर ही टिका है। गिलास एक ही है परंतु किसी के लिए आधा खाली है तो किसी के लिए आधा भरा हुआ है।

ऐसे ही यह हम सबका जीवन है। किसी के लिए दु:खों का अम्बार है तो किसी के लिए खुशियों का खजाना। कोई अपने इस जन्म को, इस जीवन में आने को सौभाग्य समझता है तो कोई दुर्भाग्य। किसी का जीवन शिकायतों से भरा है तो किसी का धन्यवाद से। किसी को मरने की जल्दी है तो किसी को यह जीवन बहुत छोटा लगता है।

कुल मिलाकर देखा जाए तो जीवन एक ही है, अवसर भी एक ही है, फिर भी सोच अलग-अलग है, परिणाम भिन्न-भिन्न हैं। क्योंकि सब कुछ हमारे नजरिए पर जो टिका है, सब कुछ हमारी समझ से जुड़ा है। इसीलिए एक कहावत यह भी है कि जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन वैसी अर्थात् जिसकी जैसी भावना होती है उसको परिणाम भी वैसे ही मिलते हैं। आओ इस सारे प्रसंग को एक कथा के द्वारा समझते हैं।

तीन मजदूर एक ही काम में संलग्न थे। इनका काम दिन भर सिर्फ और सिर्फ पत्थर तोड़ना ही था। जब वे काम कर रहे थे तो एक मजदूर से पूछा गया कि आप क्या कर रहे हो? तो उसने गुस्से से, शिकायत भरी नजर उठाकर कहा ‘दिख नहीं रहा अपनी किस्मत तोड़ रहा हूँ, पसीना बहा रहा हूँ और क्या’। इसी प्रकार जब दूसरे मजदूर से भी वही सवाल किया गया तो उसके उत्तर में गुस्सा नहीं अपितु दर्द था, आँखों में शिकायत नहीं अपितु नमी थी। कुम्हलाते स्वर में उसने कहा ‘पापी पेट के लिए रोटी जुटा रहा हूँ, जिंदा रहने का जुगाड़ कर रहा हूँ।’

जब यही प्रश्न तीसरे मजदूर से किया गया तो उसका उत्तर कुछ अलग ही था। न तो उसके लहजे में कोई शिकायत की कोई बू थी और ना ही कोई दर्द। आंखों में ना ही कोई गुस्सा था और ना ही कोई नमी। उसके उत्तर में एक संगीत था, एक आभार था। आँखों में तेज और प्रेम था व साथ-ही-साथ चेहरे पर एक मीठी से मुस्कराहट थी।

उसने आनंदित स्वर में कहा ‘मैं पूजा कर रहा हूँ, यहाँ भगवान का मंदिर बनने जा रहा है, मैं उसमें थोड़ा सहयोग दे रहा हूँ। मैं भाग्यशाली हूँ, आभारी हूँ उस परमात्मा का कि उसने इस नेक कार्य के लिए मुझे चुना। यह शुभ कार्य मेरे हाथों से हुआ। भगवान मेरे हाथों द्वारा बनाए गए मंदिर में विहार करेंगे। प्रभु ने मेरी सेवा को स्वीकारा, मैं तो धन्य ही हो गया। मुझे और क्या चाहिए, मुझे यह कार्य करने में आनन्द आ रहा है, मैं आनंदित हूँ और यह मेरे लिए भतेरा है।

ऐसे ही जीवन है। दृष्टिकोण के कारण ही सब कुछ, सुख-दुख, लाभ-हानि, धन्यवाद-शिकायत आदि में बंट जाता है। सुख-दुख का कोई परिमाप नहीं होता। सब हमारी सोच पर, हमारे नजरिए पर ही निर्भर करता है। किसी के लिए कोई तारीख या वर्ष अच्छा है तो किसी के लिए वही तारीख वही वर्ष अशुभ हो जाता है। यह सब हम उनके परिणाम को देखकर तय करते हैं। वास्तव में परिणाम कुछ और नहीं, हमारा नजरिया ही है।

जीवन में किसी को तो इस बात की चिंता है कि यह वर्ष इतनी जल्दी बीते जा रहा है तो किसी को इस बात की खुशी है कि अच्छा हुआ यह वर्ष बीत गया, अब नया वर्ष आएगा। किसी को इस वर्ष के अंत का इंतजार है तो किसी को नए वर्ष का इंतजार है। कई तो ऐसे भी हैं जो इस वर्ष से दुखी हैं, और वर्ष की यादों से चिपके बैठे हैं। किसी को गम है कि वह एक वर्ष और बूढ़े हो गए तो किसी को खुशी है कि वह एक वर्ष और भी अनुभवी और प्रौढ़ हो गए हैं।

इसलिए सब कुछ हमारे नजरिए पर टिका है। अब हम चाहें तो गिलास को पूरा देखें या आधा। सब का सब हमारे नजरिए पर ही निर्भर है।

आचार्य रमेश सचदेवा

मोटिवेशनल स्पीकर एवं पेरेंटिंग कोच
डायरेक्टर, ऐजू स्टेप फाउंडेशन

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