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‘क्यों नहीं ले रहे गर्मी को गंभीरता से हम भारतीय लोग?': आचार्य रमेश सचदेवा

"आसमान किसी परमाणु बम की तरह आग उगलता है, चेहरे पर इसकी गर्मी थपेड़ों की तरह लगती है, आंखें जलती हैं और हर चीज़, धूसर, धुंधली होती है और बर्दाश्त के बाहर रोशनी का सामना होता है। पानी से भी काम नहीं चलता क्योंकि यह हवा से भी गर्म होता है। लोग बहुत तेज़ी से मरते हैं।" वैश्विक गर्मी (ग्लोबल हीटिंग) के बारे में रॉबिन्सन का ये वर्णन एक डरावनी कल्पना हो सकती है, लेकिन यह एक भयावह चेतावनी भी है खासकर अपने देश भारत के लिए जिसकी हर समस्या का ठीकरा हम बढ़ती जनसंख्या पर पीट कर अपने-अपने काम में लग जाते है।
ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2050 तक भारत देश में गर्मी दो से चार गुणा बढ़ जाएगी और यहाँ रहना नामुमकिन हो जाएगा। फिर हम भले ही भारतमाला योजना पर विकास के नाम पर इठलाते रहें अथवा सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश कहलाने पर गौरवान्वित होते रहें ।

ग्लोबल वार्मिंग की वजह से आकड़ों के आधार पर देश में तापमान में पिछले लगभग 20 वर्षों में औसतन 0.7% वृद्धि पाई गई है जोकि एक खतरे की घंटी है।

ऐसे में जरूरत है समय रहते इस और विशेष ध्यान देने की। क्योंकि भारत तो वैसे भी एक कृषि प्रधान देश है और यदि तेजी से बढ़ती चिलचिलाती गर्मी की ओर ध्यान न दिया तो आने वाले समय में आर्थिक हालत पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ेगा और फिर अपना देश जो विश्व गुरु बनने के सपने देख रहा है कहीं इस दौड़ में सबसे पीछे वाली श्रेणी में ना पहुँच जाए।

वास्तव में हम भारतीय गर्मी को लेकर फ़ेसबुक और व्हाट्सप्प पर ही चिंतित नजर आ रहे हैं न कि व्यवहारिक रूप में।

इस और ध्यान न देने के मुख्य कारण निम्न नजर आते हैं:

सबसे बड़ी खामी तो यही है कि देश की अधिकतर योजनाएं स्थानीय हालात को ध्यान में रख कर नहीं बनाई गईं हैं ।

गांव स्तर पर मौसम केंद्र स्थापित करने की जरूरत की और सरकारों ने कोई कदम अभी तक नहीं उठाया है।

ऐसा देखने में आया है कि क़रीब-क़रीब सभी प्लान ख़तरे वाले समूहों को चिह्नित करने और उनके लिए योजना तैयार करने में पूर्ण रूप से असफल हैं ।

गर्मी से निपटने के लिए बनी अधिकांश योजनाओं के पास पर्याप्त पैसा नहीं है।

भारत के क़रीब तीन चौथाई कामगार, गर्मी वाली जगहों में काम करते हैं जैसे कि निर्माण और खनन।

बाहर काम करने वाले खेतिहर और निर्माण मज़दूर, गर्भवती महिलाएं, बुज़ुर्ग और बच्चे गर्मी के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील हैं।

जिनके लिए आने वाले समय में काम कर पाना नामुमकिन है ।

"जैसे जैसे धरती गरम हो रही है, कामगार घर के बाहर सुरक्षित और प्रभावी तरीक़े से काम करने की क्षमता खोते जा रहे हैं। भारी काम करते समय जब शरीर का तापमान बढ़ जाता है तो अत्यधिक गर्मी और नमी के चलते वो खुद को ठंडा नहीं कर पाते।"

ऐसे में भारत को ऐसे इलाक़ों की पहचान करनी चाहिए जहां भीषण गर्मी में लोग काम करते हैं और ये भी कि क्या वो कूलर ख़रीद सकते हैं या छुट्टी ले सकते हैं।

हीट वेव या भीषण गर्मी का समाधान बहुत आसान हो सकता है। जैसे खुले और गर्मी वाले इलाक़ों में अधिक से अधिक पेड़ लगाना या गर्मी को कम करने वाले डिज़ाइन इस्तेमाल करना और इमारतों में गर्मी से बचाव के उपाय करना परंतु इसके लिए प्रोत्साहन की अत्यधिक कमी है।

कभी कभार कुछ छोटे-मोटे उपाय भी बहुत कारगर सिद्ध होते हैं। जैसे अहमदाबाद में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि एक बिना एयरकंडीशन वाले अस्पताल में मरीजों को ऊपरी माले से निचले माले पर लाना उनकी जान बचा सकता है।

अपने देश में कुछ ही लोग छाता लेकर अथवा सिर को तौलिया या गमछे से ढक कर इस तपती धूप में बाहर निकलते हैं । अधिकांश तो फैशन के कारण भी इस सावधानी का प्रयोग नहीं करते।

देश के अधिकतर राज्यों में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच चुका है और आने वाले समय में यह इससे भी बढ़ने वाला है।

जरूरत है ऐसे नियम बनाने की और एक सुसंगठित आंदोलन चलाने की। हर नागरिक को कम-से-कम एक पौधा लगाने और उसे तीन वर्षों तक संरक्षित करने का कठोर नियम लागू किया जाए। सरकार स्वयं सेवी संस्थाओं का उत्साहवर्धन करे ताकि आने वाले 2-3 वर्षों में ही तापमान बढ़ने की बजाए घटना शुरू हो जाए। साथ ही साथ अधिक गर्मी में काम को रोक दिया जाए या धीमा कर दिया जाए ताकि लोगों पर असुरक्षित हालात में भी काम का दबाव न रहे।

आचार्य रमेश सचदेवा

मोटिवएशनल स्पीकर एवं पेरेंटिंग कोच
डायरेक्टर, ऐजू स्टेप फाउंडेशन

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