रक्षा बंधन कर भाईयों की रक्षा की कामना करने वाली बहिनें, आज खुद असुरक्षित हैं : किन्हीं जान-अंजान भाइयों से …
कोलकाता में डॉक्टर रेप-मर्डर केस की घटना के बाद एक और दिल दहला देने वाला मामला सामने आया है, इस बार, उत्तराखंड के एक प्राइवेट अस्पताल में काम करने वाली नर्स के साथ रेप और हत्या का मामला। पीड़िता का शव उत्तर प्रदेश के बिलासपुर में डिबडिबा गांव के पास एक खाली प्लॉट में मिला जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। कोलकाता में डॉक्टर मौमिता देबनाथ रेप-मर्डर केस के बाद एक बार फिर एक निर्दोष महिला को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। यह घटना आरजी कर मेडिकल कॉलेज में हुई थी, जहाँ डॉ मोमिता देबनाथ पोस्टग्रेजुएट ट्रेनी थीं। उनकी लाश सेमिनार हॉल में मिली थी और पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में पता चला कि उन्हें रेप करने के बाद हत्या कर दी गई थी। यह घटना न केवल पीड़ित परिवार के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए एक झटका है।
हर रोज, हर मोड़ पर घटने वाली ऐसी अनेकों घटनाएं सोशल मीडिया पर सबकी चर्चा का केन्द्र बिंदू जरूर बनती हैं और पूरे देश के जन-मानस को झकझोर देती हैं। ऐसे में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढाओ’ का स्लोगन भी मात्र एक स्वप्न लोक का स्लोगन ही है।
ऐसी घटनाओं से अक्सर होता यही है कि कुछ दिन कैन्डल लाइट मार्च निकाले जाते हैं, कामबंद कर दिया जाता है, विभिन्न संगठन झंडा लेकर आगे आते हैं, खूब शोर-शराबा होता है, जिसे देखकर लगता है जैसे अब ये खूनी खेल खत्म हो जाएंगे परंतु वही ढ़ाक के तीन-पात। इस सारे के अंत में एक लाइन से ही बात को निपटा दिया जाता है कि “क्या करें, उसकी ऐसे ही लिखी थी।“
सोचने कि बात तो यह है कि आज चाँद पर बसने की तैयारी से प्रफुल्लित होकर भी हम मनुष्य धरती कितने असहाय हैं। सब के सब इस ठोकतंत्र की नाकाम नीतियों और व्यवस्थाओं के शिकार हैं।
जिसे कोख में ही मारने की कवायद शुरु हो जाती है, उसके लिए कोख से जन्म लेकर सुरक्षित जीवन जी पाना बहुत मुश्किल है। क्या करें, कहाँ जाये ये बेटियां आज यह एक चिंतनीय विषय है। आज कोई जगह ऐसी नहीं, जहाँ पर बेटियाँ महफूज हों।
जरा सोचिए और बताइए कि आने वाली पीढी को क्या समझाएं, कौन से डूज़ और डोन्टस बताएं, क्या पहने और क्या न पहनने, किस के साथ बोले और किस के साथ नहीं, किसको अपना मानें व किसको नहीं। सब कुछ बेमानी हो चुका है। सब के सब रिश्ते तार-तार हो चुके हैं। क्योंकि रेपिस्ट, मर्डरर, हत्यारे, शून्य में तो तैयार नहीं होते। आखिर ये भी किसी घर के बेटे, भाई, पति, दामाद, चाचा, फूफा, ताऊ, मौसा, मामा, भांजा, जीजा, साला भी जरुर रहे ही होंगे। इन सबकी परवरिश सीधे किसी स्कूल में तो नहीं ही हुई होगी, परिवार में ही पले-बढे होंगे, चार मित्र भी होंगे, समाज भी होगा, सब के सब उत्तरदायी हैं ऐसी घिनौनी घटनाओं व कुकृत्यों को करने वालों के लिए ।
इन हालत में दृढ़ता से कुछ करना बहुत जरुरी है। हम सब दुःख, आक्रोश, खीझ, वेदना से बाहर निकलें तो कुछ सोचें। अभी तो बस एक बैचेनी है कि क्या जवाब देंगे हम आने वाली इस अगली जेनरेशन को?
बस जरूरत है भारतीय संस्कृति की दूरगामी सोच के इन त्यौहारों को तन्मयता से मनाने की और जीने की, गिफ़्टों से दूर रिश्ते निभाने की। आओ, बहिनों की कलाइयों पर राखी बांधे और उन्हें आश्वस्त करें कि आप हर मोड़ पर, हर चौराहे पर, हर हाथ में, हर एक के साथ में, हर दफ्तर, सुरक्षित हों।
लेखक
आचार्य रमेश सचदेवा
डायरेक्टर
ऐजू-स्टेप फाउंडेशन
मंडी डबवाली
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